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बद अच्छा बदनाम बुरा

Manisha Singh Raghav
Manisha Singh Raghav
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” बद अच्छा बदनाम बुरा ” ये कहावत ना तो मैं राजनीती के ऊपर या किसी ज्वलंत प्रश्न पर नहीं कह रही हूँ । यह कहावत तो मैं समाज मैं फैली गलतफहमियों की वजह से कह रही हूँ । इस कहावत में बद बेटियां हैं और बदनाम बेटे कैसे चलिए मैं आपको बताती हूँ । आपको समाज के घरों की ही सत्य घटनाओं पर आधारित झाँकियाँ दिखाती हूँ । —-
पहला द्रश्य —” रीमा बेटा आज दाल कुछ ज्यादा ही गाढ़ी हो गयी है थोडा पतली कर दिया करो । मुझे सटकने में परेशानी होती है ” । रीमा की सास ने विनती भरे लहजे में कहा ।
”मम्मी मैं देख रही हूँ जब से आपसे काम नहीं होता तब से आजकल आप मेरे कामों में कुछ ज्यादा ही नुक्स निकालने लगीं हैं ऐसा करिये अगर आपको मेरे हाथ का खाना पसंद नहीं तो खुद ही बना लिया करिये, मैं आपके जीभ का स्वाद देखूं या घर के काम धंधे करूं ” ।
दूसरा द्रश्य —
”रोहित इस बार मेरे जन्मदिन पर तुम मुझे वो डायमंड वाले रिंग्स दिलवा रहे हो न ” ।
” नहीं अंजलि इस बार नहीं अगली बार अभी इतना पैसा पापा की बीमारी में खर्च हुआ है और अभी मम्मी की भी आँखें बनवानी हैं ”।
” क्या अगली बार हर बार यही कहते हो मम्मी पापा की बीमारियों का भी कभी कोई अंत होता भी है ” ।
” देखो अंजलि नादाँ न बनो समझा करो तुम देख तो रही हो न घर के खर्च ” ।
”बस आपके पास मेरे और मेरे बच्चों के लिए पैसे नहीं होते इन बूढ़े बुढ़िया के पास लुटाने के लिए ढेरों पैसे हैं ”।
”अंजलि ” रोहित का अंजलि पर हाथ उठते उठते रह गया । अंजलि ने भी फटाफट अपना और अपने बच्चों का सामान पैक किया और चली आई अपने मायके
अब तीसरा द्रश्य देखिये —
” अरे पापा आपको तो बुखार है दवाई कहाँ रखी है लाइए मैं देती हूँ ” ।
” बेटा आलोक टूर पर गया है इसलिए नहीं बुलाया मामूली सा बुखार है उतर जायेगा ”
” भाभी भैया टूर पर गये हैं और आपने पापा को डा . को भी नहीं दिखाया ” ।
तो देखा आपने पाठकों ये महज एक काल्पनिक कथा नहीं है बल्कि समाज से ली हुई घटना है । —–
अब मैं आपसे कुछ सवाल करती हूँ — * जब बेटियाँ इतनी ही अच्छी होती हैं तो बहू बनते के साथ ही बदल क्यों जाती हैं ?
वे अपने माता पिता का दुःख दर्द तो समझ सकती हैं पर सास ससुर का क्यों नहीं शायद इसलिए वे कभी २४ घंटे सास ससुर के पास हैं और मायके कभी कभी आती हैं इसलिए उन्हें अपने माता पिता का दुःख तो नजर आ जाता है पर सास ससुर का नहीं ? फिर समाज सिर्फ बेटियों का ही पक्ष क्यों लेता है ? तो बद हुईं बेटियाँ
अब इसी समाज का दूसरा पहलू पर भी गौर करिये । —
निशा जी के सत्य घटना पर आधारित एक लेख ”अपराधबोध पिता का ” में मालिनी के पिता को उसके भैया भाभी के द्वारा सताये जाने पर उनकी मदद किसने की ? क्या याद है आपको ?नहीं ना उसके पति संदीप ने ही न
ऐसे मैंने बहुत से दामाद देखे हैं जो अपने माता पिता के साथ साथ अपने सास ससुर की भी देखभाल करते हैं । जैसे की मेरे पति ने , जब मेरे पिता की बीमारी में पूरा साथ दिया और उनके स्वर्गवासी होने पर मेरी माँ की भी वही देखभाल करते हैं । पर अफ़सोस श्रेय बेटी को ही जाता है । मैं समाज से पूँछती हूँ कि अगर पति सहयोग न करे तो क्या बेटी अपने माता पिता की सेवा अपना घर बिगाडकर कर सकती है या कोई माता पिता अपनी बेटी का बिगड़ता हुआ घर देखकर अपनी सेवा करवाएंगे , हरगिज नहीं तो एक शाश्वत सत्य यह है कि बिना बेटी के पति के सहयोग के बेटी भी अपने माता पिता की सेवा नहीं कर सकती तो फिर बदनाम हो गये बेटे तो फिर समाज सिर्फ एक पक्ष की ही क्यों बात करता है । आज हम बेटी के ही गुणगान करते नहीं थकते और बेटे की चर्चा भी नहीं करते ।
मेरे पति के सेकेट्री मैं उन्हें लगभग १४ ,१५ सालों से जानती हूँ । उस व्यक्ति ने आज तक शराब को हाथ तक नहीं लगाया और उस पर पीकर हाथ उठाने के इल्जाम में और पूरे परिवार को दहेज लेने के इल्जाम में जेल के अंदर करवा दिया ।
निशा जी के सत्य घटना पर आधारित एक लेख ” इसको हत्या कहें या आत्महत्या ”में पत्नी की अपने घर से अलग होने की जिद से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है तो फिर बताइए पुरुषों के दुःख दर्द कौन समझेगा , किससे कहे ? हमेशा यही कहा जाता है कि बेटे ने अपने बूढ़े माता पिता को वर्द्धआश्रम में भेज दिया इसमें भी समाज सिर्फ एक ही पक्ष पर गौर करता है दूसरे पर नहीं । बेटे ने उन्हें वर्द्धआश्रम में क्यों भेज दिया ताकि घर की कलह से अच्छा है कि जिन्दगी के जितने भी दिन बचे हैं शांति से गुजर जाएँ दो वक्त की रोटी तो कम से कम चैन से खा लें । हमारे समाज में ऐसे बहुत से पुरुष हैं जो अपनी पत्नियों और उसके मायके वालों के द्वारा सताये हुए हैं लेकिन किसी के सामने अपनी जुबान नहीं खोलते , पूंछने पर कहते हैं कहने से क्या फायदा हमारी सुनता ही कौन है हमारा समाज तो सिर्फ औरतों से हमदर्दी रखता है और उसी की बात सुनता है । जगह जगह समाज सुधारक बैठे हुए हैं जो नारियों की सच्ची झूठी कहानियाँ के खिलाफ आन्दोलन खड़े कर देती हैं दूसरे पहलू पर गौर किये बिना ही |
मैंने एक सत्य घटना पर आधारित एक कहानी पढ़ी थी ” डूबती आँखों के सपने ” जिसको पढकर मेरा दिल भर आया । उसमें एक ७० साल की बूढी को उम्र कैद हुई वजह उसकी बहू उसके बेटे से अपनी माँ बहिन से अलग होने की जिद में और बात ना मानने पर आग लगा ली और मरने
से पहले उसका जिम्मेदार उन लोगों को ठहरा दिया । माँ बहिन को जेल हो गयी और बेटा पागलखाने पहुँच गया क्या फायदा हुआ ऐसी जिद का या ऐसी आजादी का ? ऐसा नहीं यह सभी आज के जमाने में ही होता हो , ऐसा पहले से ही हमारे समाज में होता चला आ रहा है लेकिन उस वक्त न तो मीडिया ही इतना एक्टिव था न ही अख़बार वाले
मेरी दादी किसी को एक बात बता रही थीं, एक बहू ने अपने पति से अगल घर बसाने की जिद की जब घर में कलह होने लगी तो लड़के की माँ ने अपनी कसम देकर उसे बहू के साथ भेज दिया और खुद अपने पोते और लड़के की याद में मर गयी जब लड़के को पता चला तब तक उसकी बीबी एक बच्चे की माँ बन चुकी थी वह गुस्से में अपनी ससुराल आया और अपने बच्चे को उठाकर ले जाने लगा । उसके ससुर और पत्नी ने कहा कि ” वह अपने बच्चे के बिना कैसे जियेगी ? ” तब लड़के ने कहा ” सोचो मेरी माँ जिसने मुझे २५ साल तक पाला है वह कैसे जी होगी फिर तुम एक दिन भी अपने बच्चे के बिना नहीं रह सकतीं ” । तब उसकी पत्नी की आँखें खुलीं ।
लोग कहते हैं कि आप नारी होते हुए भी आप नारियों के इतनी खिलाफ क्यों हैं लेकिन मैं कहती हूँ कि नारियों के खिलाफ नहीं हूँ जो नारी आजादी का नाजायज फायदा उठाती हैं मैं उनके खिलाफ हूँ अगर सभी नारी के दुःख दर्द समझेंगे तो फिर पुरुषों के दुःख दर्द कौन समझेगा ? जिस तरह पाँचों उँगलियाँ एक जैसी नहीं होतीं उसी तरह से ना तो सभी लडकियाँ ही अच्छी होती हैं ना ही पुरुष ही तो सिर्फ एक ही पक्ष की बात क्यों करनी यह कहाँ अन्याय है कि हमारा समाज सिर्फ एक पक्ष को अच्छा बताये और दूसरे पक्ष को खराब । किसी भी मामले की बात करने से अच्छी एक चीज है वह है मौन |

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