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वैसे तो तेलंगाना का मुद्दा कोई नया नहीं है आजादी के बाद इस मुद्दे को हवा दी २००९ चन्द्रशेखर नायडू ने . लेकिन कहते हैं न जल्दबाजी में लिए फैसले कभी सही नहीं होते हमेशा अपने लिए बैठे बैठाये मुसीबत खड़ी कर देते हैं जैसे कि तेलंगाना को बनाने का निर्णय लेकर कांग्रेस ने अच्छी खासी मुसीबत गले मोल ले ली . लेकिन सवाल अब भी यही उठता है कि राज्यों के छोटे छोटे टुकड़े करके किसका फायदा है ? जनता का , राजनेताओं का या नेताओं का —
अगर मैं बात करूं २००९ की जब चन्द्रशेखर नायडू के अनशन पर बैठने और आन्दोलन करने पर कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का एलान किया था . तब सबसे ज्यादा किसका फायदा हुआ था ? चन्द्रशेखर का ही न . चन्द्रशेखर नायडू को रात ही रात में लोकप्रियता मिल गयी और साथ में तेलंगाना बनने पर चन्द्रशेखर नायडू को तदेपा के मुकाबले विधान सभा की ११९ सीटें उनकी पार्टी के पक्ष में आ जायेंगीं . नुकसान तो जनता और राष्ट्रीय सम्पत्ति का ही हुआ न . चारों तरफ सरकारी वाहन जलाये गये जनता का व्यापार ठप्प हुआ और तो और सबसे बड़ा नुकसान तो अपने देश का हुआ चारों तरफ से राज्यों के बंटवारे की मांग उठने लगी . देश में ग्रहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गये .
अब एक नजर जरा राज्यों को टुकड़ों में बाँटने की उठती मांगों पर डाली जाये . अगर मायावती की मांग पर उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े कर भी दिए जाएँ तो उत्तर पश्चिम में ६ जिले , पूर्वाचल में ८ , अवध और बुन्देल खंड में सिर्फ दो अब सोचकर देखिये — १ — छोटे छोटे टुकड़े करने में भला क्या औचित्य है ? सबसे ज्यादा नुकसान तो राष्ट्रीय कोष का है . छोटे छोटे राज्यों की राजधानियां , तहसीलें , विधान सभा , सचिवालयों का निर्माण पर करोड़ों का खर्च हो जायेगा . २ — अगर देखा जाये तो पाँचों उँगलियाँ तो इन नेताओं की घी में हैं . जितने राज्य उतने ही मुख्यमंत्री , राज्यपाल , सचिवगण और उतना ही ज्यादा जनतंत्र . ३ — नेताओं को मिलेंगी गद्दियाँ और झंडे वाली कारें नेतागण घोटालों में डूबें रहेंगें और जनता नौकरी और विकास के लिए तरस जाएगी .
तेलंगाना के पक्षधर कहते हैं कि” राज्यों के छोटे छोटे टुकड़े कर देने से देश कोई छोटा नहीं हो जायेगां बल्कि विकास ही होगा ” . पर इन बंधुओं को कोई समझाये कि राज्यों की तरक्की उनके टुकड़े करने से नहीं होगी बल्कि मुख्यमंत्री जी की विकास में रूचि लेने से होगी . जैसे पंजाब का विकास , अगर हम बात करें पंजाब , महाराष्ट्र , गुजरात , हरियाणा के विकास की तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इन राज्यों का विकास हुआ है पर राज्य विभाजन की वजह से नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के विकास में रूचि लेने की वजह से हुआ है .अगर उत्तर प्रदेश के विकास की बात करें तो . उत्तर प्रदेश को तो छोड़ दीजिये अगर हम लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी की ही बात करें तो सपा राजधानी में मेट्रो के लिए तो करोड़ों रूपये खर्च करने को तैयार है पर क्या कभी उसने राज्य की सडकों को तो छोडो लखनऊ की सडकों की तरफ ध्यान दिया है ,जितना पैसा वह मेट्रो पर खर्च करना चाह रही है उतना शिक्षा के क्षेत्र , सरकारी स्कूलों , सरकारी अस्पतालों और गरीबों की दशा सुधारने में खर्च करने में लगा दे . एक बात और क्या छात्रों को लेपटॉप बाँटने से उत्तर प्रदेश के छात्र भला दुनिया की बराबरी कैसे कर सकते हैं ? कोई सपा से पूँछे कि नेट क्या बिना बिजली से चलता है ? और आगे बढने के लिए और दुनिया की जानकारी बहुत जरूरी है जो बिना नेट के सम्भव नहीं . पहले वह उत्तर प्रदेश की बिजली की व्यवस्था तो छोड़ लखनऊ की बिजली की व्यवस्था ही सुधार ले तब कहीं जाकर उत्तर प्रदेश के विकास के बारे में सोचे . दूसरी तरफ
सबसे बड़ा नुकसान तो अपने देश का हुआ चारों तरफ से राज्यों के बंटवारे की मांग उठने लगी . देश में ग्रहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गये .
अब एक नजर जरा राज्यों को टुकड़ों में बाँटने की उठती मांगों पर डाली जाये . अगर मायावती की मांग पर उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े कर भी दिए जाएँ तो उत्तर पश्चिम में ६ जिले , पूर्वाचल में ८ , अवध और बुन्देल खंड में सिर्फ दो अब सोचकर देखिये — १ — छोटे छोटे टुकड़े करने में भला क्या औचित्य है ? सबसे ज्यादा नुकसान तो राष्ट्रीय कोष का है . छोटे छोटे राज्यों की राजधानियां , तहसीलें , विधान सभा , सचिवालयों का निर्माण पर करोड़ों का खर्च हो जायेगा . २ — अगर देखा जाये तो पाँचों उँगलियाँ तो इन नेताओं की घी में हैं . जितने राज्य उतने ही मुख्यमंत्री , राज्यपाल , सचिवगण और उतना ही ज्यादा जनतंत्र . ३ — नेताओं को मिलेंगी गद्दियाँ और झंडे वाली कारें नेतागण घोटालों में डूबें रहेंगें और जनता नौकरी और विकास के लिए तरस जाएगी .
तेलंगाना के पक्षधर कहते हैं कि” राज्यों के छोटे छोटे टुकड़े कर देने से देश कोई छोटा नहीं हो जायेगां बल्कि विकास ही होगा ” . पर इन बंधुओं को कोई समझाये कि राज्यों की तरक्की उनके टुकड़े करने से नहीं होगी बल्कि मुख्यमंत्री जी की विकास में रूचि लेने से होगी . जैसे पंजाब का विकास , अगर हम बात करें पंजाब , महाराष्ट्र , गुजरात , हरियाणा के विकास की तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इन राज्यों का विकास हुआ है पर राज्य विभाजन की वजह से नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के विकास में रूचि लेने की वजह से हुआ है .अगर उत्तर प्रदेश के विकास की बात करें तो . उत्तर प्रदेश को तो छोड़ दीजिये अगर हम लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी की ही बात करें तो सपा राजधानी में मेट्रो के लिए तो करोड़ों रूपये खर्च करने को तैयार है पर क्या कभी उसने राज्य की सडकों को तो छोडो लखनऊ की सडकों की तरफ ध्यान दिया है ,जितना पैसा वह मेट्रो पर खर्च करना चाह रही है उतना शिक्षा के क्षेत्र , सरकारी स्कूलों , सरकारी अस्पतालों और गरीबों की दशा सुधारने में खर्च करने में लगा दे . एक बात और क्या छात्रों को लेपटॉप बाँटने से उत्तर प्रदेश के छात्र भला दुनिया की बराबरी कैसे कर सकते हैं ? कोई सपा से पूँछे कि नेट क्या बिना बिजली से चलता है ? और आगे बढने के लिए और दुनिया की जानकारी बहुत जरूरी है जो बिना नेट के सम्भव नहीं . पहले वह उत्तर प्रदेश की बिजली की व्यवस्था तो छोड़ लखनऊ की बिजली की व्यवस्था ही सुधार ले तब कहीं जाकर उत्तर प्रदेश के विकास के बारे में सोचे .अगर बात करें इससे पहली पार्टी की उसने विकास के नाम पर क्या किया ? करोड़ों अरबों मूर्ति खड़ी करने में लगा दिए लखनऊ की तो छोडो उसके आसपास के एरिया में भी विकास नहीं हुआ फिर जब तक मुख्यमंत्री नहीं चाहेगें तब तक किसी भी देश का विकास संभव नहीं . दूसरी तरफ अगर बिहार और झारखंड की तरफ गौर किया जाये तो मैं पूँछती हूँ कि कहाँ है विकास और कहाँ है रोजगार ? अगर बिहार में रोजगार या विकास होता तो नक्सलबाद की समस्या से हमें नहीं उलझना पड़ता . जब २७ से २८ वां राज्य बना तो किसी को फायदा हुआ या नहीं पर वहाँ के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सबसे ज्यादा फायदा हुआ जो विकास के नाम पर करोड़ो डकार गये . मध्य प्रदेश , बिहार झारखंड न जाने कितने ही राज्य पिछड़े राज्यों में आते हैं . नेता छात्रों को नौकरी का झांसा देती है और साथ में मिला लेती है . मैं आप सभी से एक सवाल पूंछती हूँ — कहाँ है नौकरी , कल भी बेरोजगारी थी और आज भी बेरोजगारी है और कल भी रहेगी .
एक पार्टी के द्वारा दूसरी पार्टी को खत्म करने के लिए ही राज्यों के बंटवारे की मांगें उठती हैं . राज्य के बंटवारे का शिगूफा छोडकर वह इन्सान तो सबका भला बन जाता है और विरोधी पार्टी को जनता के सामने खड़ा कर देता है ताकि वह जनता को बता सके कि हम तो आपकी भलाई ले लिए राज्य का बंटवारा चाहते हैं पर विरोधी पार्टी होने ही नहीं दे रही . राज्यों के बंटवारे की मांगें भी स्वार्थ के लिए उठती हैं . न की जनता की भलाई के लिए अगर ऐसा होता तो बिहार में नक्सलवाद पैदा ही नहीं होता .
क्षेत्रिय नेताओं के बारे में जितना भी कहा जाये उतना ही कम है . इन पार्टी के नेता भूख हड़ताल करके अपने राजनैतिक हितों के आधार पर अपनी बात मनवा लेते हैं दुहाई देते हैं गरीबों और पिछड़े वर्ग की मांग करते हैं . उनके विकास के लिए सरकार से पैसा माँगते हैं और फायदा पिछड़े वर्ग को होने की बजाय उनको होता है . शहर और राज्यों की बजाय उनकी कोठियों का विकास होता है . चाहे वह कोई भी पार्टी क्यों न हो . क्षेत्रिय पार्टी की तो वह भूख है जो कभी मिटती ही नहीं आखिर सरकार उनकी हर माँग मानने के लिए क्यों तैयार हो जाती है ? आखिर सरकार किस किसको खुश रखेगी ? आज २९ राज्य बनाने की मांग है कल और भी राज्यों के टुकड़े करने की मांग उठेगी . अगर अलग अलग राज्य बना भी दिए तो कल भारत के राज्यों की सीमा और राजधानियों के मुद्दे खड़े हो जायेंगें . इन नेताओं की संतुष्टि का कोई अंत नहीं है .
मैं तो कहती हूँ कि सरकार को इन सिरफिरों की माँगों पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए . भूख हड़ताल करके ये सिर्फ सरकार को ब्लैक मेल ही करते हैं और कुछ नहीं , नहीं तो किसी की जान इतनी सस्ती नहीं होती , न ही कोई इतना परोपकारी होता कि वह दूसरे की भलाई के लिए अपनी जान की बजी लगा दे . और न ही किसी नेता में इतनी देश भक्ति भरी हुई है अगर ऐसा होता तो ये देश को ही खाली न कर रहे होते .
बस डर तो यह है कि कहीं ये स्वार्थी नेता राज्यों का बंटवारा करते करते कहीं देश के बंटवारे पर न पहुँच जाएँ क्योकि ऐसे स्वार्थी नेता किसी का भला नहीं सोच सकते जनता को इन स्वार्थी नेताओं को समझना और बहिष्कार करना चाहिए .
अगर बिहार और झारखंड की तरफ गौर किया जाये तो मैं पूँछती हूँ कि कहाँ है विकास और कहाँ है रोजगार ? अगर बिहार में रोजगार या विकास होता तो नक्सलबाद की समस्या से हमें नहीं उलझना पड़ता . जब २७ से २८ वां राज्य बना तो किसी को फायदा हुआ या नहीं पर वहाँ के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सबसे ज्यादा फायदा हुआ जो विकास के नाम पर करोड़ो डकार गये . मध्य प्रदेश , बिहार झारखंड न जाने कितने ही राज्य पिछड़े राज्यों में आते हैं . नेता छात्रों को नौकरी का झांसा देती है और साथ में मिला लेती है . मैं आप सभी से एक सवाल पूंछती हूँ — कहाँ है नौकरी , कल भी बेरोजगारी थी और आज भी बेरोजगारी है और कल भी रहेगी .
एक पार्टी के द्वारा दूसरी पार्टी को खत्म करने के लिए ही राज्यों के बंटवारे की मांगें उठती हैं . राज्य के बंटवारे का शिगूफा छोडकर वह इन्सान तो सबका भला बन जाता है और विरोधी पार्टी को जनता के सामने खड़ा कर देता है ताकि वह जनता को बता सके कि हम तो आपकी भलाई ले लिए राज्य का बंटवारा चाहते हैं पर विरोधी पार्टी होने ही नहीं दे रही . राज्यों के बंटवारे की मांगें भी स्वार्थ के लिए उठती हैं . न की जनता की भलाई के लिए अगर ऐसा होता तो बिहार में नक्सलवाद पैदा ही नहीं होता .
क्षेत्रिय नेताओं के बारे में जितना भी कहा जाये उतना ही कम है . इन पार्टी के नेता भूख हड़ताल करके अपने राजनैतिक हितों के आधार पर अपनी बात मनवा लेते हैं दुहाई देते हैं गरीबों और पिछड़े वर्ग की मांग करते हैं . उनके विकास के लिए सरकार से पैसा माँगते हैं और फायदा पिछड़े वर्ग को होने की बजाय उनको होता है . शहर और राज्यों की बजाय उनकी कोठियों का विकास होता है . चाहे वह कोई भी पार्टी क्यों न हो . क्षेत्रिय पार्टी की तो वह भूख है जो कभी मिटती ही नहीं आखिर सरकार उनकी हर माँग मानने के लिए क्यों तैयार हो जाती है ? आखिर सरकार किस किसको खुश रखेगी ? आज २९ राज्य बनाने की मांग है कल और भी राज्यों के टुकड़े करने की मांग उठेगी . अगर अलग अलग राज्य बना भी दिए तो कल भारत के राज्यों की सीमा और राजधानियों के मुद्दे खड़े हो जायेंगें . इन नेताओं की संतुष्टि का कोई अंत नहीं है . इसलिए यही कहा जा सकता है कि छोटा राज्य विशुद्ध सियासत के सिवा कुछ नहीं .
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