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स्थान जम्मू :
यह वाक्या उस वक्त का है जब हम जम्मू में रहते थे। मैंने जम्मू के एक जाने माने स्कूल में अध्यापिका प्रार्थना पत्र दिया , उस स्कूल में नौकरी करना बड़े सम्मान की बात समझी जाती थी। मुझे इंटरव्यू के वक्त पूरी उम्मीद थी कि उस विद्यालय में चयन तो मेरा ही होना है क्योंकि मेरे पास पहले स्कूल के १५ सालों का अनुभव और सर्वोत्तम अध्यापिका व प्रधानाध्यापिका होने के प्रमाणपत्रों की भरमार जो थी। हर कार्य व हर क्षेत्र में कुशल होने के बाबजूद जो मेरे अंदर सबसे बड़ी कमी थी वह थी धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात न कर पाना। उसकी सबसे बड़ी वजह थी मेरा जन्म बुलंदशहर जिले के एक छोटे से कस्बे में होना , उचित शिक्षा का अभाव होना , इन सब के बाबजूद भी मैंने अपनेआप को सबसे अलग बनाया जिसकी वजह से मुझे आज भी अपने आप पर गर्व है।
खैर मैं बता रही थी , मैं इंटरव्यू के लिए अंदर गयी। मेरे सारे प्रमाणपत्र साक्षात्कार लेने वालों की मेज पर बिखरे हुए थे। जिन्हें वे बहुत ध्यान से मंद मंद मुस्कुराहट के साथ एक एक करके पढ़ रहे थे और शायद मुझ जैसी काबिल , होनहार अध्यापिका को अपने स्कूल में चयन करने की सोच रहे थे। जब मेरा इंटरव्यू शुरू हुआ कुछ देर तक तो मैं उनके सवालों के जबाब इंग्लिश में देती रही जब मुझे धाराप्रवाह इंग्लिश समझ आनी बंद हो गयी तब मझे उन्हें अपनी मजबूरी बताकर हिंदी में इंटरव्यू लेने की प्रार्थना करनी पड़ी।
मैं इंटरव्यू देकर घर आ गयी। जब मैं चयनित अध्यापिकाओं की सूचि बोर्ड पर देखने लगी तब मेरा नाम उसमें कहीं भी नहीं था। १५ साल के अनुभवी अध्यापिका को छोड़कर उन्होंने एक या दो साल अनुभवी धाराप्रवाह इंगलिश बोलने वाली अध्यापिकाओं का चयन कर लिया। घर आकर मैं अश्रुपूर्ण नयनों से सर्वोत्तम अध्यापिका , सर्वोत्तम प्रधानाध्यापिका के प्रमाणपत्र देखने लगी और सोचने लगी क्या फायदा हुआ मेरा इतनी मेहनत करके प्रमाणपत्र लेने का मेरी कुशलता इस विदेशी भाषा के तले दब गयी और तो और सबसे ज्यादा हास्यप्रद बात तो यह हुई क़ि हिंदी दिवस जोरशोर से मनाने और उस स्कूल में मंत्रियों द्वारा हिंदी को सम्मानित किये जाने पर उस स्कूल का नाम अख़बारों में सुर्ख़ियों में था जिसने हिंदी में बोलने पर न जाने कितने ही काबिल अध्यापिकाओ, अध्यापकों को ठुकरा दिया था।
चाहे हम हिंदी मातृभाषा को सम्मानित करने के लिए साल में कितने भी नारे लगा लें पर आज भी हमारे समाज में एक कड़वी सच्चाई यह है कि हम अपनी ही भाषा की वजह से जगह जगह अपमानित किये जाते हैं और तुच्छ समझे जाते हैं खासतौर से नामीगिरामी पब्लिक स्कूलों में या फिर हमको बहिन जी जैसे व्यंगबाण से भेदा जाता है। मैं आप सभी से यही पूँछना चाहती हूँ क्या यही है हमारी मातृभाषा का सम्मान , फिर ये पब्लिक स्कूलों में दिखावा क्यों ?
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